Tuesday, June 18, 2019

क्या सबसे अच्छे लोकसभा स्पीकर पीए संगमा थे?

लोकसभा अध्यक्ष के पद पर सत्तारुढ दल के सदस्य का ही निर्वाचन होता है. इसी परंपरा के मुताबिक पहली लोकसभा यानी 1952 से लेकर 1991 में दसवीं लोकसभा तक तो सत्तारूढ दल का सदस्य ही इस पद के लिए निर्वाचित होता रहा.
लेकिन जब से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ, यह परंपरा टूटी और कई मौके ऐसे आए हैं, जब इस पद पर सत्तारूढ दल के बजाय उसके सहयोगी या सरकार को बाहर से समर्थन देने वाले दल के सदस्य को इस पद के लिए चुना गया.
लोकसभा अध्यक्ष चाहे जिस भी दल का सदस्य चुना जाए, लेकिन माना जाता है कि चुने जाने के बाद वह दलगत राजनीति से ऊपर उठ जाता है, और वह अपनी पार्टी के हित-अहित की जगह संसद की मर्यादा का रक्षक बन जाता है.
उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सदन की कार्यवाही का संचालन दलीय हितों और भावनाओं से ऊपर उठकर करते हुए विपक्षी सदस्यों के अधिकारों का भी पूरा संरक्षण करेगा.
इसी मान्यता के चलते आदर्श स्थिति यही मानी गई कि लोकसभा अध्यक्ष का निर्वाचन सर्वसम्मति से होना चाहिए. इसी भावना के अनुरूप 1952 में गठित पहली लोकसभा के अध्यक्ष कांग्रेस के गणेश वासुदेव मावलंकर का चुनाव निर्विरोध हुआ. 1956 में उनके निधन के बाद शेष कार्यकाल के लिए उनके स्थान पर कांग्रेस के ही अनंतशयनम अयंगार का चुनाव भी निर्विरोध हुआ.
इससे पहले तक अयंगार लोकसभा उपाध्यक्ष थे. 1957 में दूसरी लोकसभा के अध्यक्ष भी अयंगार ही चुने गए. इस बार भी उनका निर्वाचन निर्विरोध ही हुआ. 1962 में तीसरी लोकसभा में सरदार हुकुम सिंह और चौथी लोकसभा में नीलम संजीव रेड्डी भी अध्यक्ष पद पर निर्विरोध निर्वाचित हुए. इन सभी लोकसभा अध्यक्षों का सदन की कार्यवाही के दौरान सरकार की ओर झुकाव होते हुए भी उनकी भूमिका को कमोबेश निर्विवाद ही माना गया.
हालांकि तीसरी लोकसभा तक तो संख्या बल के मामले में विपक्ष की स्थिति सत्ता पक्ष के मुकाबले बेहद कमजोर थी, लेकिन कम संख्या में होते हुए भी विपक्षी बेंचों पर प्रतिभा का अभाव नहीं था. उस दौर में एके गोपालन, श्रीपाद अमृत डांगे, प्रो. हीरेन मुखर्जी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, नाथ पई, किशन पटनायक, महावीर त्यागी, मीनू मसानी, अटल बिहारी वाजपेयी, हरिविष्णु कामत जैसे दिग्गज विपक्ष में थे जिनका अध्ययन कक्ष के साथ ही सड़क यानी जनता से भी गहरा नाता था.
ये सभी दिग्गज पूरी तैयारी के साथ सदन में आते थे इसलिए अध्यक्ष भी न तो एक सीमा से अधिक सत्तापक्ष का बचाव नहीं कर पाते थे और न ही सदन की कार्यवाही के नियमों की मनमानी व्याख्या कर विपक्षी सदस्यों को मुद्दे उठाने से रोक पाते थे. विपक्षी सदस्य भी नियमों को लेकर इतने सचेत रहते कि कई मौकों पर वे अध्यक्ष की व्यवस्था को चुनौती भी देते थे और अध्यक्ष को भी मजबूर होकर उनकी दलील स्वीकार करनी पडती थी.
इस सिलसिले में तीसरी लोकसभा के बाद के हिस्से का एक वाकया बेहद दिलचस्प है. छत्तीसगढ में बस्तर की आदिवासी रियासत के पूर्व महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव आदिवासियों के बीच बेहद लोकप्रिय थे. 1966 में आदिवासियों के एक आंदोलन का नेतृत्व करते हुए पुलिस की गोली से उनकी मौत हो गई थी. इस मामले को डॉ. लोहिया ने लोकसभा में उठाया.

सरदार हुकुम सिंह

तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह ने कहा कि यह मामला कानून व्यवस्था से संबंधित है और राज्य सरकार के तहत आता है, इसलिए इसे यहां नहीं उठाया जा सकता.
अध्यक्ष की इस व्यवस्था पर मधु लिमये ने कहा कि कानून-व्यवस्था का मामला जरूर राज्य के अंतर्गत आता है लेकिन आदिवासी कल्याण का मामला केंद्र सरकार से संबंधित है. बस्तर में आदिवासियों पर जुल्म हुआ है, आंदोलन और शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के उनके मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, इसलिए यह मामला यहां उठाया जा सकता है.
लिमये की दलील का विपक्ष के अन्य सदस्यों ने भी समर्थन किया. अंतत: अध्यक्ष को अपनी व्यवस्था वापस लेते हुए भंजदेव की हत्या से संबंधित मामले पर बहस की अनुमति देना पडी.
चौथी लोकसभा (1967) में कांग्रेस के नीलम संजीव रेड्डी अध्यक्ष चुने गए. हालांकि उस लोकसभा में संख्या बल के लिहाज से विपक्ष भी काफी मजबूत स्थिति में था, लेकिन फिर भी रेड्डी का निर्वाचन निर्विरोध ही हुआ. वे महज दो साल ही इस पद पर रहे, क्योंकि 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित होने पर उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था. इस पद पर उनका भी कार्यकाल कमोबेश निर्विवाद ही रहा.
उनकी जगह कांग्रेस के ही गुरुदयाल सिंह ढिल्लों अध्यक्ष चुने गए. वे चौथी लोकसभा के शेष कार्यकाल तक अध्यक्ष रहे और उसके बाद पांचवीं लोकसभा के भी अध्यक्ष चुने गए. वे पांचवीं लोकसभा के उत्तरार्ध तक इस पद पर रहे और दिसंबर 1975 में इस्तीफा देकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए. उनके स्थान पर बलिराम भगत लोकसभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और छठी लोकसभा का गठन होने तक इस पद पर रहे.
ढिल्लों और भगत का कार्यकाल औसत दर्जे का माना गया. कई मौके ऐसे आए जब उन पर सरकार की रबर स्टैंप होने का आरोप भी लगा.
1977 में छठी लोकसभा अस्तित्व में आई. इस लोकसभा का चेहरा बिल्कुल बदला हुआ था. पहली बार कांग्रेस विपक्ष में थी और पांच दलों के विलय से बनी जनता पार्टी सत्ता में. प्रारंभ में जनता पार्टी की ओर नीलम संजीव रेड्डी का नाम लोकसभा अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित हुआ और वे निर्विरोध चुन लिए गए लेकिन इस बार भी वे महज चार महीने ही इस पद पर रहे. जुलाई 1977 में वे राष्ट्रपति निर्वाचित हो गए.
इसके बाद उनकी जगह सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहे केएस हेगड़े लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए. हेगड़े का कार्यकाल बेहद चुनौती भरा रहा लेकिन उनकी भूमिका निर्विवाद रही.
बलराम जाखड़
चूंकि छठी लोकसभा अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किए बगैर ही भंग हो गई थी, लिहाजा 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और सातवीं लोकसभा अस्तित्व में आई. इस लोकसभा के अध्यक्ष बलराम जाखड़ चुने गए. वे पूरे कार्यकाल तक इस पद पर रहे और आठवीं लोकसभा में भी उन्होंने यही दायित्व संभाला. इस प्रकार वे लगातार दस वर्षों तक इस पद पर रहने वाले पहले लोकसभा अध्यक्ष हुए.

Monday, June 10, 2019

مظاهرات السودان: مبعوث أمريكي يزور الخرطوم لحث المجلس العسكري والمعارضة على الحوار

أعلنت وزارة الخارجية الأمريكية أن دبلوماسيا بارزا سيزور السودان الأسبوع الحالي لحث المجلس العسكري الانتقالي وقوى المعارضة على استئناف الحوار.
وأوضح بيان صادر عن الوزارة أن تيبور ناغي، مساعد وزير الخارجية الأمريكي للشؤون الأفريقية، سوف "يدعو إلى وقف أي هجمات على المدنيين".
ويتزامن ذلك مع عصيان مدني أعلنته مجموعات المعارضة الرئيسية السودانية بدءا من الأحد الماضي للضغط على المجلس العسكري كي يعمل على تسليم السلطة للمدنيين.
وقُتل أربعة أشخاص في اليوم الأول من العصيان المدني جراء إطلاق قوات الأمن الغاز المسيل للدموع والذخيرة الحية على محتجين في الخرطوم.
وبحسب بيان وزارة الخارجية، فإن المبعوث الأمريكي "سوف يحث الجانبين على توفير بيئة تمكنهما من استئناف المحادثات".
ومن المقرر أن يناقش ناغي أزمة السودان مع رئيس الوزراء الإثيوبي، آبي أحمد، الذي يحاول القيام بجهود وساطة بين المجلس العسكري والمعارضة.
وتأتي زيارة المسؤول الأمريكي في إطار جولة أفريقية تشمل موزمبيق وجنوب أفريقيا.
ساد الهدوء العاصمة الخرطوم رغم إعادة فتح بعض الشركات أبوابها وتحرك بعض الحافلات العامة.
وفي المقابل، ظلت أغلب المتاجر والأسواق والبنوك في العاصمة ومدن أخرى مغلقة الاثنين، إذ التزم العمال بتعليمات تجمع المهنيين السودانيين وقوى المعارضة بشأن عدم الذهاب إلى العمل.
ودعا تجمع المهنيين إلى إضراب عام بعد الإعلان عن مقتل أكثر من مئة من المتظاهرين لدى فض اعتصامهم في الثالث من يونيو/ حزيران.
وأكد المجلس العسكري الاثنين التزامه بكشف الحقائق المرتبطة بعملية فض الاعتصام.
كما أعلن عن اعتقال عدد من العسكريين على خلفية الحادث، مشددا على ضرورة تقديمهم للعدالة في أسرع وقت ممكن.
وكان تجمع المهنيين قد أوضح في بيان سابق أن "العصيان المدني سوف يبدأ الأحد وينتهي عندما تعلن حكومة مدنية عن توليها السلطة عبر تلفزيون الدولة".
وأضاف البيان أن "العصيان المدني إجراء سلمي قادر على تركيع أقوى ترسانات الأسلحة في العالم".
ووضع متظاهرون حواجز ومتاريس في شوارع العاصمة. وقال مستخدمون لمواقع التواصل الاجتماعي إنه لا تزال لديهم القدرة على الاتصال بالإنترنت رغم أن المجلس العسكري قطع خدمة الإنترنت عن البلاد.
وترى قوى من المعارضة أنه لا يمكن الثقة في المجلس العسكري بعد فض اعتصام القيادة العامة في الخرطوم بالقوة، مؤكدين موقفهم الرافض لاستئناف المحادثات.
غير أن عمل السوريين واستثماراتهم في مصر كانت في الآونة الأخيرة مثار حملة ضدهم بزعم أنها تمول أنشطة مشبوهة وتدير أموالا مشبوهة لصالح جماعة الإخوان المسلمين المصنفة كجماعة "إرهابية" بحكم القانون في مصر.
بدأت الحملة من خلال تدوينة قصيرة وضعها نبيل نعيم القيادي السابق بالجماعة الإسلامية في مصر عبر موقع "تويتر" ذكر خلالها أن "النشاط الاقتصادي للسوريين في مصر من أموال التنظيم الدولي للإخوان، ويمثل عمليات غسيل أموال لبعض الجماعات الارهابية".
وفي هذا الإطار تقدم المحامي المصري سمير صبري المعروف بقربة من السلطات المصرية بمذكرة إلى النائب العام يطالبه فيها بوضع الاستثمارات السورية في مصر تحت الرقابة القانونية، وفحص بعض البلاغات التي تشير إلى تورط بعض المستثمرين ورجال الأعمال السوريين في مصر في تمويل أنشطة إرهابية.
وطالب صبري في بلاغه باتخاذ الإجراءات القانونية للكشف عن مصادر أموال السوريين الوافدين، معتبرا أنهم غزوا المناطق التجارية في أنحاء مصر، واشتروا وأجروا المتاجر بأسعار باهظة، واشتروا الشقق والفيلات، وحولوا بعض ضواحي العاصمة المصرية إلى مدن سورية، وأبدى صدمته مما وصفه بالنمط السائد للعلاقات الاستهلاكية المبالغ بها والترف المفرط لكثير من هؤلاء السوريين قاطني هذه المناطق.
وقال صبري: "قدرت إحصاءات حجم استثمارات رجال الأعمال وأصحاب رؤوس الأموال السوريين، والذين انتقل معظمهم للإقامة في مصر بعد بدء الأزمة، بـ23 مليار دولار، معظمها مستثمر في عقارات وأراض ومصانع ومطاعم ومحلات تجارية وغيرها، وبات السوريون يملكون أهم مصانع الملابس والنسيج، كما سيطر بعضهم على مناطق تطوير عقاري في أهم وأرقى المناطق المصرية.
وأبدى المحامي المصري مخاوفه بشأن مصادر هذه الأموال، متسائلا عما إذا كانت كل هذه الأنشطة والأموال والمشروعات والمحلات والمقاهي والمصانع والمطاعم والعقارات خاضعة للرقابة المالية، وعن مصدرها وكيفية دخولها الأراضي المصرية، وكيفية إعادة الأرباح وتصديرها مرة أخرى.
السوريون "منورين مصر"
لكن هذه الحملة قابلها تدشين وسم #السوريين_منوريين_مصر، والذي حظي بزخم كبير وتصدر مواقع التواصل الاجتماعي في رسالة دعم وترحيب بالسوريين على أرض مصر.
وتنظر الغالبية العظمى من المصريين إلى السوريين على أنهم أخوة وأشقاء، ومن خلال جولة بسيطة لسؤال المواطنين في شوارع القاهرة عن مدى رضائهم عن وجود السوريين في مصر والأنشطة التي يعملون بها، بادر أغلبهم بالقول إن السوريين يمثلون "نموذجا ناجحا للانسان الذي يستطيع النهوض من جديد، وبناء ذاته بعد فقد كل شيء.
هكذا قال محمد إبراهيم السيد العامل بأحد المطاعم السورية في القاهرة. يقول إبراهيم السيد إن أصحاب المطعم يتعاملون معه كأخ لهم، ويبذلون له العطاء في أي وقت يحتاجهم فيه.
ويقول زميله عامر حسين إنه يعمل في هذا المطعم منذ تأسيسه قبل نحو 8 سنوات، وإنه لا يفكر في مغادرة المكان وإنهاء عمله لأنه يحصل على حقوقه كاملة، ويجد كل المعدات والخامات اللازمة لتقديم خدمة جيدة لزبائن المكان.
ورغم أن عمل السوريين واستثمارتهم المختلفة في مصر حسن كثيرا من مناخ المنافسة وجودة بعض المنتجات والحرف التي عملوا بها إلا أن البعض يطالب في نفس الوقت ببعض الرقابة لصالح المجتمع.
وتشير الأرقام الصادرة من الأمم المتحدة إلى أن إجمالي الأموال التي استثمرها السوريون في مصر منذ اندلاع الأزمة في بلدهم في مارس/ آذار عام 2011 يقدر بنحو 800 مليون دولار، من خلال 30 ألف مستثمر مسجل بالفعل لدى السلطات المصرية.
كما تفيد احصائيات المفوضية السامية لشئون اللاجئين إلى أن عدد السوريين المقيمين في مصر والمسجلين لديها يبلغ 130 ألفا، بينما تتحدث التقارير الحكومية المصرية إلى أن عددهم يتراوح بين 250 ألفا إلى 300 ألف سوري.

एक तीर से दो निशाना साधने की कोशिश

मालदीव में प्रधानमंत्री का चरमपंथ पर बात करना इस बात को भी दर्शाता है कि श्रीलंका में हाल ही में हुए इस्टर बम धमाकों ने भारतीय सुरक्षा नीतिकारों को भी झझकोर कर रख दिया है.
दक्षिण एशिया मामलों पर चार साल से काम कर रहे भारतीय विदेश मंत्रालय के एक अफ़सर के मुताबिक़, "भारत श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसियों को लगातार अलर्ट देता रहा. सच यही है कि धर्म से प्रभावित चरमपंथ की वारदातें हमारे पड़ोस में बड़े पैमाने पर हुई हैं, चाहे वो ढाका का होली आरटीज़न बेकरी हमला हो या श्रीलंका के चर्चों पर हुए सिलसिलेवार हमले. इसलिए किसी भी प्राथमिकता के पहले यही भारत की प्राथमिकता है."
साफ़ है कि, मालदीव की अपनी यात्रा के दौरान पीएम मोदी ने एक तीर से दो निशाने करने की कोशिश की है.
एक तरफ़ चीन को मालदीव में भारतीय वापसी का और दूसरी तरफ़ पाकिस्तान को चरमपंथ के मामले में.
अब चीन और पाकिस्तान के विदेश नीति पंडितों का क्या रूख़ रहेगा, इसका कुछ ही दिनों में शुरू होने वाली शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में पता चलने की उम्मीद है.
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'घर में घुस कर मारने' वाले दावे को ग़लत बताया है.
शरद पवार ने मोदी सरकार पर तंज़ कसते हुए कहा कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ की गई कार्रवाई पाकिस्तान में नहीं, बल्कि कश्मीर में की गई थी और कश्मीर भारत का हिस्सा है.
फ़ेसबुक पर पहली बार लोगों के सवालों का जवाब देते हुए शरद पवार ने कहा कि लोगों को नियंत्रण रेखा और वहां की स्थिति के बारे में जानकारी नहीं है और उन्हें लगा कि कार्रवाई पाकिस्तान के ख़िलाफ़ की गई थी.
पवार ने कहा कि एक विशेष समुदाय के प्रति विरोध पैदा करने के लिए यह सबकुछ किया गया, जिसने बीजेपी को राजनीतिक रूप से फ़ायदा पहुंचाया है.
नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल युनाइटेड (जदयू) ने ऐलान किया है कि वो बिहार के बाहर अन्य राज्यों की विधानसभा चुनावों में बीजेपी से अलग होकर लड़ेगी. हालांकि बिहार में यह दोनों पार्टी साथ चुनाव लड़ेगी.
पार्टी ने झारखंड, दिल्ली, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में अकेले लड़ने की घोषणा की है. पार्टी महासचिव केसी त्यागी ने कहा कि इसका मक़सद 2020 तक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करना है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में पटना में आयोजित पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह भी तय किया गया कि पार्टी केंद्र सरकार का हिस्सा नहीं बनेगी लेकिन बाहर से समर्थन जारी रहेगा.
पार्टी ने धारा 370, समान नागरिक संहिता और राम मंदिर के मुद्दे पर अपना पुराना रवैया क़ायम रखने की बात कही है. जदयू की राय इन सभी मुद्दों पर बीजेपी से अलग है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को कहा कि कुछ लोग अभी भी लोकसभा चुनाव के नतीजों से उबर नहीं पाए हैं.
तिरुमला में भगवान वेंकटेश्वर की पूजा के लिए जाने से पहले रेनीगुंटा हवाई अड्डे पर मोदी ने पार्टी कार्यकर्ताओं की एक बैठक में कहा कि बीजेपी के लिए चुनाव का अध्याय समाप्त हो चुका है और अब उसका ध्यान 130 करोड़ भारतीयों की सेवा पर है.
उन्होंने कहा, "कुछ लोग अभी भी चुनाव नतीजों के असर से निकल नहीं सके हैं. यह उनकी अपनी समस्या है, जहां तक हमारी बात है तो हमारे लिए यह अध्याय अब बंद हो चुका है."
उन्होंने कहा कि उनकी सरकार लोगों की आकांक्षाओं व सपनों को पूरा करने के लिए काम करेगी.
उन्होंने कहा, "कुछ लोग जिनका चुनाव में अलग नज़रिया था, कह रहे हैं कि लोगों की उम्मीदें काफ़ी बढ़ गई हैं और उन्हें इस बात पर शक है कि क्या मोदी इन उम्मीदों पर खरा उतर पाएगा."
प्रधानमंत्री ने कहा कि यह नई आकांक्षाएं भारत के उज्जवल भविष्य की गारंटी हैं. उन्होंने विश्वास जताया कि देश तरक़्क़ी की नई ऊंचाइयों को छुएगा.
उन्होंने आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के लोगों को लोकतंत्र की मज़बूती में ख़ास भूमिका निभाने के लिए धन्यवाद दिया. इन दोनों राज्यों में भाजपा को कोई भी सफलता चुनाव में नहीं मिली है. इस संदर्भ में मोदी ने कहा कि बीजेपी के लिए हार-जीत मायने नहीं रखती. पार्टी का हमेशा ध्यान जन सेवा पर रहता है.
हांगकांग में रविवार को विवादास्पद बिल को लेकर लगभग दस हज़ार लोगों ने प्रदर्शन किया. यह विवादास्पद बिल अपराध में संलिप्त संदिग्ध को ट्रायल के लिए चीन को प्रत्यर्पित करने की अनुमति दे सकता है.
यह क़ानून इसी साल फ़रवरी में प्रस्तावित किया गया था और इस पर जुलाई में वोट होने की उम्मीद है. यह क़ानून हांगकांग के अधिकारियों और अदालतों को उन देशों के प्रत्यर्पण अनुरोधों को प्रक्रिया में लाने की अनुमति देगा, जिनके साथ पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश का औपचारिक हस्तांतरण समझौता नहीं है. यह क़ानून चीन, ताइवान और मकाउ जैसे देशों की मांग पर बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के संदिग्धों को प्रत्यर्पण करने की अनुमति देगा.
इस क़ानून के विरोध में विक्टोरिया पार्क में प्रदर्शनकर्ता जमा रहे. लोगों ने विरोध जताने के लिए सफ़ेद रंग को चुना और यह पार्क कई घंटों तक पूरा सफ़ेद नज़र आया और छाते की वजह से पीले रंग का समूह दिखाई दिया. पीला रंग 2014 से लोकतंत्र के समर्थन का प्रतीक है, जिसे 'अंब्रेला रिवोल्यूशन' के नाम से जाना जाता है.
हांगकांग के अधिकारियों ने कहा कि ऐसी किसी भी प्रत्यर्पण की मांग पर हांगकांग की अदालत का फ़ैसला अंतिम होगा और धार्मिक एवं राजनीतिक अपराधों के संदिग्धों को प्रत्यर्पित नहीं किया जाएगा.
वहीं एक प्रदर्शनकारी ने कहा कि यह बिल अगर क़ानून बन गया तो हांगकांग अपनी स्वतंत्रता खो देगा और इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकती है.